नदी के तट पर बसे अपने गांव में.
हो सकता है मैं आदमी न रहूँ
तब मेरे गांव की नदी मुझमे उतर जाए
और संभव है मैं आदमी में लौट आऊँ.
हो सकता है
कुहासे की किसी सुबह
उठती लहर के जल से
मैं तिक्त होकर
सफेद बगुले सा
उड़ता हुआ आ पहुँचूँ
अपने पीपल की छाँव में. 💗Vinod Kushwaha
और हो सकता है
चुपचाप अंधकार में
डायन की हाथ की तरह
कोई भुतहा पेड़
रोक दे मेरे पावं को
जो जाना चाहते हैं
गांव की रसमयी पगडंडी को.
पर जरुरी है
मेरे लिए लौटना अपने गांव.
चमकती दुनिया के
इस बांस चढ़े शहर में
कम नहीं हैं डायनों की चीखें
कम नहीं है भूतहों से घिरा सन्नाटा
एक-एक ईंट मेरे अंदर धंसकर
न जाने कहां खो गया है
और मानवीयता की मोटी रस्सी
मेरे मन के बेडरूम से गायब हो गई है.
मुझे दिखता है
छप्पर की छाती चूमकर उठता धुआं
पक्षी लौटते संध्या की हवाओं को चूमते
कलमी के गंध से भरे जल में तैरते बत्तखें
घाट पर जाती इठलाती बधुएं
आम की छाँह में सुस्ताते चरवाहें
खेतों के गड्ढों में लोटते बच्चें
और आँगन में रंभाती गायें.
मुझे लौटना होगा
उन हवाओं में
उन बोलियों में
उन धड़कनों में. 💗👉 Vinod kushwaha
उन बालियों में
उन थिरकनों में
उन विचारों में
जहां मानव बसते हैं. उन गांवों में
कुहासे की किसी सुबह
उठती लहर के जल से
मैं तिक्त होकर
सफेद बगुले सा
उड़ता हुआ आ पहुँचूँ
अपने पीपल की छाँव में. 💗Vinod Kushwaha
और हो सकता है
चुपचाप अंधकार में
डायन की हाथ की तरह
कोई भुतहा पेड़
रोक दे मेरे पावं को
जो जाना चाहते हैं
गांव की रसमयी पगडंडी को.
पर जरुरी है
मेरे लिए लौटना अपने गांव.
चमकती दुनिया के
इस बांस चढ़े शहर में
कम नहीं हैं डायनों की चीखें
कम नहीं है भूतहों से घिरा सन्नाटा
एक-एक ईंट मेरे अंदर धंसकर
न जाने कहां खो गया है
और मानवीयता की मोटी रस्सी
मेरे मन के बेडरूम से गायब हो गई है.
मुझे दिखता है
छप्पर की छाती चूमकर उठता धुआं
पक्षी लौटते संध्या की हवाओं को चूमते
कलमी के गंध से भरे जल में तैरते बत्तखें
घाट पर जाती इठलाती बधुएं
आम की छाँह में सुस्ताते चरवाहें
खेतों के गड्ढों में लोटते बच्चें
और आँगन में रंभाती गायें.
मुझे लौटना होगा
उन हवाओं में
उन बोलियों में
उन धड़कनों में. 💗👉 Vinod kushwaha
उन बालियों में
उन थिरकनों में
उन विचारों में
जहां मानव बसते हैं. उन गांवों में
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