Wednesday, May 5, 2021

ग़रीबी में बिखरता बचपन

गरीबी बचपना आने ही नहीं देती है, बच्चे अपने परिवार का भार उठाने की मज़बूरी में बचपन में ही जवान हो जाते हैं और जवानी से पहले बूढ़े. हालाँकि ध्यान से देखो तो वह बच्चे भी अपने ही लगते हैं, उनमें भी अपने ही बच्चों का अक्स नज़र आता है. कुछ बच्चों के पास सबकुछ है और कुछ के पास है केवल लाचारी…
 गरीब बच्चो का ख्वाब होता है
बचपन कब पैदा हुए
कब जवान और कब चल दिये
अनंत यात्रा पर याद भी नहीं क्या है ज़िन्दगी
 शायद हसरतो का नाम है,
या फिर उम्मीदों का
 हसरतें कब किसकी पूरी हुई हैं?
और उम्मीदें तो होती ही बेवफा हैं
  ऊँची इमारतें की क्या खता है
आखिर ऊँचाइयों से कब दीखता है
धरातल
 कुछ’ कुलबुलाता सा नज़र आता है
‘कीड़ों’ की तरह या कुछ परछाइयाँ
जो अहसास दिलाती हैं
शिखर पर होने का
किसी का बच्चा कई दिन से भूखा है
तो हुआ करे  
ज़िद कर के मेरे बच्चे ने तो
पीज़ा खा लिया है ठिठुरती ठण्ड को कोई
सहन ना कर पाया
मुझे क्या, मेरा बच्चा तो
नर्म बिस्तर से रूबरू है क्यों ना हो,
आखिर ‘हम’ कमाते किसके लिए हैं?
‘अपने’ बच्चो के लिए ही ना!
 जब गरीबों की कोई ज़िन्दगी ही नहीं
तो ‘बचपन’ कैसा?

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