Saturday, April 12, 2025

पूर्वांचल एक्सप्रेस

       Vinod Kushwaha 
हर नई पीढ़ी आती है बड़ी होती है और कोई एक्सप्रेस पकड़ती है दूर दराज शहर को चली जाती है। सदियों से ये हमारी एक परंपरा का हिसा बन चुका है। पूर्वाचल के गांवों का हाल और बिहार का एक़ जैसे ही है। 
लेकिन पूर्वाचल के लोगों को बिहारी बोल देने पर दिल पे ले लेते है। कि हमे पिछड़े और पुराने सोच से जोड़ा जा रहा है। लेकिन हकीकत एक जैसा ही है। क्या पूर्वांचल में ऐसा नहीं है। ऐसा यहां भी है। यह भी।     
"हर चलती रेल पश्चिम की तरफ ले जाती है। बहुत सारे मजदूर जिन्हें घर के चूल्हे जलाने है। और घर में छोड़ जाते है बहुत सारे ऐसे लोग। जिनकी बहुत सारी उम्मीदें है। उनसे जो पश्चिम को जा रहा हैं। किसी एक्सप्रेस में बैठ के किसी दूर दराज शहर को किसी कॉन्ट्रैक्शन के ठेकेदार से बात कर के। ऐसा तो नहीं है न कि कोई परंपरा है। इनकी कंस्ट्रक्शन मजदूर का जो सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चल रही है। हमे समझ नहीं आता इनके पिछड़ने की वजह कौन है। पुरानी परंपराएं। पुराने लोग। पुरानी सोच। या सरकारें है। जिनकी योजनाएं जिले तक आ जाती होंगी। लेकिन गांव तक नहीं पहुंचती। बड़ी नजदीक से देखा है, हमने पूर्वांचल को। कैसे सरकारी योजनाएं जो किसी व्याक्ति विशेष के लिए बनी होती हैं। उन तक पहुंचने से पहले न जाने कितने हिस्से में बट जाती है। जिले से चल कर गांव तक हर योजनाएं थक जाती है। यकीन मानिए। मै ये बात विश्वास से बोल सकता है। कि एक १०० लिटर पानी का टैंक किसी पूर्वांचल के जिलों से गांव के किसी एक व्यक्ति तक भेजा जाएगा, सरकार द्वारा तो गांव जाते जाते २० लीटर बच जाएगा। और उस व्यक्ति को एक ग्लास पानी पिला कर बोल दिया जाएगा बोल देना हमे पानी मिल गई।  सरकारी योजनाएं किसी एक व्यक्ति के लिए तो होती है। लेकिन उसको मंदिर में चढ़ी प्रसाद की तरह बांट लिया जाता है। और हर सरकारी योजना पे सरकारी कर्मचारी लुगाई समझ के अपना हक जताते हैं। यकीन मानिए पूर्वांचल में हर सरकारी योजनाएं छेड़छाड़ का शिकार होती है। 

Thursday, April 10, 2025

पूर्वांचल एक्सप्रेस (नॉवेल)

पुराने ज़माने की बातें जब भी सुनता हूँ, तो लगता है—सच में कुछ ख़ास नहीं बदला है। यहाँ अब भी वही पुरानी चीज़ें हो रही थीं, वहां इर्द गिर्द।
बच्चे ३.४ किलोमीटर पैदल ही स्कूल जाते थे। एक घर से दूसरे घर आग ले जाना पड़ता था। ताकि माचिस बचाई जा सके। झाड़ियों में से एक पेड़ की लकड़ी तोड़कर उसकी छोटी सी टहनी से पेन बना कर स्कूल की कॉपी में लिखा करते थे। जहाँ तक मुझे याद है, मेरे हाथ आने तक लकड़ी बच गई थी—क्योंकि तब तक स्लेट और कॉपी का दौर शुरू हो चुका था, एंट्री लेवल के बच्चों के लिए पटरी की जगह स्लेट ले चुका था।
बिजली की बल्ब देखे नहीं थे। हा डिबरी की जगह लालटेन ले चुका था। और मोटे सेल और बड़े बल्ब वाले स्टील की टार्च की जगह लेड स्ट्रिप बल्ब और पतले सेल वाले टार्च का दौर शुरू हो रहा था। मीटी के तेल से जलती रोशनी के बाद जो दूसरी रोशनी हमने देखी थी। वो थी गोबर गैस की, रंग दूधिया था। जो वन इंच की बल्व थी जिसको पुराने सेलों से कनेक्ट कर के गोबर में सेट कर के तैयार किया था। ये गांव तक पहला लेड लाइट था। बड़ी खुशी हुए थी इस उजले को देख के। लेकिन क्षमता इतनी नहीं थी प्रकाश की वो अच्छे से छोटे लिखे शब्दों को पहचान दिला सके। इस लिए हम लालटेन ही प्रयोग में लाते थे। लालटेन और डिबरी के साथ जो लगाओ और अपनापन था न ओ बस वही बता सकता है जो इस देश के पिछड़े इलाकों से आता है।
 हा लालटेन डिबरी से अच्छा था। क्यों कि गिरने का डर कम रहता था। कई बार डिबरी गिर कर आग पकड़ लेती थी बिस्तर में अगर पढ़ते समय नींद आ गई और सो गए तो क्यों कि चारपाई ढीली और हिलती रहती है। चारपाई ही सोने बैठने के लिए प्रयोगों में लाया जाता था। ऐसा नहीं था कि लालटेन अभी आया था। काफी पहले से मार्केट में था । लेकिन लोवर मिडिल क्लास फैमिली हमेशा 20 साल पीछे रहती है। जैसे ट्रेन के बोगी में लोवर मिडिल क्लास जनरल में और उसी ट्रेन में कुछ लोग एसी में। एक ही ट्रेन मे जनरल बोगी से ऐसी तक का सफर में एक पीढी के साथ वर्षों लग जाते है।

Thursday, April 3, 2025

पूर्वांचल एक्स्प्रेस नोबेल

एसी कोच  से जनरल कोच  तक, जनरल  कोच से एसी  कोच  तक का सफर बताता है।  इस देश में कितनी विविधता है।  जनरल कोच में बैठ के अतीत को देख रहा था ६ सालो बाद। और सोच रहा था। उस दौर के बारे में जब कॉलेज में थे और कंप्टेटिव एग्जाम के सिलसिले में अक्सर शहर को जाना होता था। २०१५ से लेकर २०१८ तक जनरल कोच में। न जाने कितने अनगिनत  सफर तय किए याद नही है। उस समय जब लोगो को ट्रेन के जनरल कोच में देखता जाते हुए और खुद भी जाता था । तो सोचता था की कब निकलेंगे हम इससे बाहर। हमसे तो एक मिनट नही रहा जाता इसमें दम घुटने लगता है। मैं अक्सर एसी कोच  को देखकर सोचता था। वो कौन लोग है जो सीसे वाली बोगी में बैठते है। उस टाइम तक मुझे पता था की स्लीपर और ऐसी कोच अमीर पढ़े लिखे लोग० जाते है। इस लिए भी मुझे पढ़ना था ! कुछ बनना था तब। आज भी यही सोच रहा था कितनी विविधता है न एक ही ट्रेन के अंदर। सोचते हुए। कोच में एक नजर डाला तो देखा। फटी गंजी, हाफ पेंट, लुंगी में पसीनो से तरबतर, सुखी रोटी के साथ आचार खाते लोगो को ट्रेन के कोच के फ्लोर पर सोते हुए। कई लोगो के ऊपर पैर रख के लोग जा रहे है। भीड़ इतनी थी की दोनो पैर एक साथ रखने की जगह नही थी । और लोग ३ दिन की यात्रा करते आ रहे थे। फिर हमें सोचने लगे आखिरकार देश की हालत आज भी हम वही है। बुलेट ट्रेन, बंदेमात्रम, और हवाई यात्राएं करने वाले लोगो को क्या पता गरीबी कितनी पीड़ादायक होती हैं । और गरीब रहता कहा है। 
इस देश को गहराई से देखना है तो ट्रेन की जनरल  कोच को देखना चाहिए।  ताकि समझ आए हम विकाश कितना कर गए है। और कहा तक । गरीबों के लिए ५ किलो चावल पर। और अमीरो के लिए  बुलेट ट्रेन और बंदेमात्र्म ट्रेन जैसी सुविधाए पे ज्यादा जोड़ दिया जाता है। न की गरीबों के हालत पर।  खैर बोलने पर पाबंदियां है और लिखने पर लगाई जा रही । तो  लिखते वक्त भी बहुत सोचना पड़ता है। क्यों की लगता तो ऐसा ही है। कि अनुच्छेद 19 - बस कागजो मे ही लिखा है। 

Saturday, November 30, 2024

उम्र और हम वहां से यहां तक

आटा चकी पे गेहूं के बोर पे पिता का नाम न लिखकर अपना नाम लिखने से लेकर साइकिल की चैन खुद से चढ़ाने तक का दौर हमे बढ़ते जिम्मेदारियों का एहसास करता गया। और कब कहा कैसे एक एक दिन अतीत बन गया। और बढ़ती उमर, और बढ़ती जिम्मेदारियों हमे वहां से यहां तक ले आई। अतीत की जिम्मेदारियों हमे मजबूत बनाती गई और एक दिन हमे कुम्हार के घड़े के जितना जिम्मेदार बना दी। मिटी पानी से गल कर मिट्टी पानी को ही सहारा देने जैसा हर मिडल क्लास लड़के इक उमर के बाद पत्थर सा हो जाते है। और जीने लगते है। अपने अनगिनत सपनों को मार के किसी के सपनों के लिए, 

Tuesday, November 5, 2024

समाज से बिछड़े हुए लोगों

समाज में कुछ ऐसे लोग है। जो जमीन पर तो है पर समाज से मुलाकात नहीं हुई है। उनको पता ही नही समाज हैं क्या। कैसे काम करता है। उनको दुनिया की हकीक़त ही पता नहीं है। की समाज में क्या हो रहा कैसे रहा जाता है। मैने देखा है कुछ लोगों को। जिनको घर द्वार गांव समाज से कुछ लेना देना नहीं है। बस एक रूम का किराया ले के किसी शहर पे पड़े है वर्षों से। कुछ पैसे कमाते है। और फैमिली को परवरिश करते है। बस इतना ही पता है। फैमिली में कितने मेंबर है। उनके बीच क्या हो रहा। इससे बाहर की समाज कया है। इनको नहीं पता। ये एक कुएं के मेढक जैसे लोग हैं। जिनको लगता है । जो परिवार के बीच खयालात है। वही समाज है। उसी हिसाब से समाज चलता है। उसी हिसाब से समाज सोचता हैं। ऐसे लोग जब समाज में आते है। या ऐसे घर पे पले बढ़े लोग जब किसी दूसरे फैमिली या समाज से मिलते है। तो ये उस फैमिली और समाज से बहिष्कृत हो जाते है। क्यों कि इनकी मानसिकता ही सामाजिक नहीं होती। क्यों कि ये पहले से समाज को जानते नहीं है ये समाज के तौर तरीकों से वाक़िफ नहीं होते। न समाज से कभी मिले होते है। इनके लिए बाहर का समाज वही है जो घर का माहौल रहा है। एक कमरे के अंदर कैसा माहौल है। वहीं समाज है। उनके लिए ऐसे घर के बच्चे समाज में नहीं रह पाते। न किसी फैमिली के मेंबर के लायक रहते है। ये समाज को स्वीकार नहीं कर पाते। समाज को समझने के लिए समाज में उठना बैठना पड़ता है समाज का हिस्सा बनना पड़ता है। समाज के हिस्स बन के समाज को समझना। ये उतना ही जरूरी है जितना। शिक्षा, नौकरी। ये भी एक परिवारिश का अहम अंग है। पैसा कमा लेना इंसान को समझदार सबित नही करता। दो शब्द है। होनहार और समझदार , सामाजिक इंसान हमेशा समझदार होगा। होनहार होना स्किल और किताबी है। होनहार हमेशा होशियार दिखता। जबकि समझदार समाज को समझता है। और समझदारी दिखता है।

Monday, September 30, 2024

अनसुलझे लड़के

एक बिगड़े हुऐ लडको को संवारती है । एक प्रेमिका, जिनके हिस्से में प्रेमिकाएं नही आई। वो अनसुलझे हुऐ लड़के किसी पत्नी की हिस्से में आ गए। 

पूर्वांचल एक्सप्रेस

            V inod Kushwaha   हर नई पीढ़ी आती है बड़ी होती है और कोई एक्सप्रेस पकड़ती है दूर दराज शहर को चली जाती है। सदियों से ये हमारी...