इक ज़हरीले नाग सा, हमें धीरे-धीरे डसता है
बेमाने, बेख़ौफ़, बेपरवाह से हैं इस शहर के बाशिंद
चीते की रफ़्तार से, बेलगाम घोड़ों से, दौड़ते हैं ।
इस शहर के बाशिंदे..
पाओगे नहीं कभी इस शहर के चेहरों को मिलते-जुलते
न दुआ-सलाम, न राम-रहीम,
न खैरियत पूछते..आती नहीं है
नींद इस शहर की आँखों को,
ये जागती हैं दिन में, और जगाती हैं रातों को..
खयालों की तो आवाज़ नहीं होती,
तो फिर क्यों है इतना शोर इस शहर में.
न किसी ने चीखा,
न पुकारा,तो गूंजती है किसकी आवाज़ इस शहर में..
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