Thursday, April 3, 2025

पूर्वांचल एक्स्प्रेस नोबेल

एसी कोच  से जनरल कोच  तक, जनरल  कोच से एसी  कोच  तक का सफर बताता है।  इस देश में कितनी विविधता है।  जनरल कोच में बैठ के अतीत को देख रहा था ६ सालो बाद। और सोच रहा था। उस दौर के बारे में जब कॉलेज में थे और कंप्टेटिव एग्जाम के सिलसिले में अक्सर शहर को जाना होता था। २०१५ से लेकर २०१८ तक जनरल कोच में। न जाने कितने अनगिनत  सफर तय किए याद नही है। उस समय जब लोगो को ट्रेन के जनरल कोच में देखता जाते हुए और खुद भी जाता था । तो सोचता था की कब निकलेंगे हम इससे बाहर। हमसे तो एक मिनट नही रहा जाता इसमें दम घुटने लगता है। मैं अक्सर एसी कोच  को देखकर सोचता था। वो कौन लोग है जो सीसे वाली बोगी में बैठते है। उस टाइम तक मुझे पता था की स्लीपर और ऐसी कोच अमीर पढ़े लिखे लोग० जाते है। इस लिए भी मुझे पढ़ना था ! कुछ बनना था तब। आज भी यही सोच रहा था कितनी विविधता है न एक ही ट्रेन के अंदर। सोचते हुए। कोच में एक नजर डाला तो देखा। फटी गंजी, हाफ पेंट, लुंगी में पसीनो से तरबतर, सुखी रोटी के साथ आचार खाते लोगो को ट्रेन के कोच के फ्लोर पर सोते हुए। कई लोगो के ऊपर पैर रख के लोग जा रहे है। भीड़ इतनी थी की दोनो पैर एक साथ रखने की जगह नही थी । और लोग ३ दिन की यात्रा करते आ रहे थे। फिर हमें सोचने लगे आखिरकार देश की हालत आज भी हम वही है। बुलेट ट्रेन, बंदेमात्रम, और हवाई यात्राएं करने वाले लोगो को क्या पता गरीबी कितनी पीड़ादायक होती हैं । और गरीब रहता कहा है। 
इस देश को गहराई से देखना है तो ट्रेन की जनरल  कोच को देखना चाहिए।  ताकि समझ आए हम विकाश कितना कर गए है। और कहा तक । गरीबों के लिए ५ किलो चावल पर। और अमीरो के लिए  बुलेट ट्रेन और बंदेमात्र्म ट्रेन जैसी सुविधाए पे ज्यादा जोड़ दिया जाता है। न की गरीबों के हालत पर।  खैर बोलने पर पाबंदियां है और लिखने पर लगाई जा रही । तो  लिखते वक्त भी बहुत सोचना पड़ता है। क्यों की लगता तो ऐसा ही है। कि अनुच्छेद 19 - बस कागजो मे ही लिखा है। 

Saturday, November 30, 2024

उम्र और हम वहां से यहां तक

आटा चकी पे गेहूं के बोर पे पिता का नाम न लिखकर अपना नाम लिखने से लेकर साइकिल की चैन खुद से चढ़ाने तक का दौर हमे बढ़ते जिम्मेदारियों का एहसास करता गया। और कब कहा कैसे एक एक दिन अतीत बन गया। और बढ़ती उमर, और बढ़ती जिम्मेदारियों हमे वहां से यहां तक ले आई। अतीत की जिम्मेदारियों हमे मजबूत बनाती गई और एक दिन हमे कुम्हार के घड़े के जितना जिम्मेदार बना दी। मिटी पानी से गल कर मिट्टी पानी को ही सहारा देने जैसा हर मिडल क्लास लड़के इक उमर के बाद पत्थर सा हो जाते है। और जीने लगते है। अपने अनगिनत सपनों को मार के किसी के सपनों के लिए, 

Tuesday, November 5, 2024

समाज से बिछड़े हुए लोगों

समाज में कुछ ऐसे लोग है। जो जमीन पर तो है पर समाज से मुलाकात नहीं हुई है। उनको पता ही नही समाज हैं क्या। कैसे काम करता है। उनको दुनिया की हकीक़त ही पता नहीं है। की समाज में क्या हो रहा कैसे रहा जाता है। मैने देखा है कुछ लोगों को। जिनको घर द्वार गांव समाज से कुछ लेना देना नहीं है। बस एक रूम का किराया ले के किसी शहर पे पड़े है वर्षों से। कुछ पैसे कमाते है। और फैमिली को परवरिश करते है। बस इतना ही पता है। फैमिली में कितने मेंबर है। उनके बीच क्या हो रहा। इससे बाहर की समाज कया है। इनको नहीं पता। ये एक कुएं के मेढक जैसे लोग हैं। जिनको लगता है । जो परिवार के बीच खयालात है। वही समाज है। उसी हिसाब से समाज चलता है। उसी हिसाब से समाज सोचता हैं। ऐसे लोग जब समाज में आते है। या ऐसे घर पे पले बढ़े लोग जब किसी दूसरे फैमिली या समाज से मिलते है। तो ये उस फैमिली और समाज से बहिष्कृत हो जाते है। क्यों कि इनकी मानसिकता ही सामाजिक नहीं होती। क्यों कि ये पहले से समाज को जानते नहीं है ये समाज के तौर तरीकों से वाक़िफ नहीं होते। न समाज से कभी मिले होते है। इनके लिए बाहर का समाज वही है जो घर का माहौल रहा है। एक कमरे के अंदर कैसा माहौल है। वहीं समाज है। उनके लिए ऐसे घर के बच्चे समाज में नहीं रह पाते। न किसी फैमिली के मेंबर के लायक रहते है। ये समाज को स्वीकार नहीं कर पाते। समाज को समझने के लिए समाज में उठना बैठना पड़ता है समाज का हिस्सा बनना पड़ता है। समाज के हिस्स बन के समाज को समझना। ये उतना ही जरूरी है जितना। शिक्षा, नौकरी। ये भी एक परिवारिश का अहम अंग है। पैसा कमा लेना इंसान को समझदार सबित नही करता। दो शब्द है। होनहार और समझदार , सामाजिक इंसान हमेशा समझदार होगा। होनहार होना स्किल और किताबी है। होनहार हमेशा होशियार दिखता। जबकि समझदार समाज को समझता है। और समझदारी दिखता है।

Monday, September 30, 2024

अनसुलझे लड़के

एक बिगड़े हुऐ लडको को संवारती है । एक प्रेमिका, जिनके हिस्से में प्रेमिकाएं नही आई। वो अनसुलझे हुऐ लड़के किसी पत्नी की हिस्से में आ गए। 

Friday, March 15, 2024

सरकारी टोटके और सरकार की जनता


बोलोगे तो मारे जाओगे 
हा में हा नही मिलेगी तो मारे जाओगे
उनके रंग में ही रंगना होगा। दूसरा रंग अपनाओगे तो
मारे जाओगे
हक मांगोगे तो कटघरे में खड़े कर दिए जाओगे आवाज 
उठाओगे तो मारे जाओगे ।
उनकी कही बातों को न बोलोगे तो देशद्रोही कहलाओगे
बदलती जा रही है। सरकारी तंत्र की तरह सरकारों की मानसिकताएं जनता के प्रति।
फिर भी आम आदमी के बीच विश्वास कायम है सरकार के प्रति ।
४ लाठी सरकार से पिटता हवा, भ्रष्टाचार से रोज २, ४ होता हुवा इस देश का आदमी, ५ किलो अनाज पाने के बाद उसी सरकार की रैली के लिए भूखे पेट फिर तैयार हो जाता हैं ।जिंदाबाद जिंदाबाद करने के लिए।

हकीकत तो यही बता रहीं है। आज भी इस देश के एक तिहाई लोग की औकात क्या है। आजादी से अब तक।  मैं भी उन हिस्सा का एक पार्ट हु। और गौर से कह सकता हु। की ५ किलो अनाज और ऐसे योजनाएं एक ऐसी दवा है की न बीमारी को ठीक कर सकती है । न दूसरी दवा लेने देगी। पूरा गांव का परिवार जो राशन कार्ड और ५ किलो अनाज की सेवाएं लेते आया है। ओ आज भी इन्ही चीजों में उलझा है। और शिक्षा से वंचित रह गया है। स्कूल भेजने से ज्यादा सरकारी लाभ पाने पे जोड़ दिया जाता रहा है। आधार, पैन कार्ड और फोटो कॉपी से न जाने कब बाहर निकलेगा एक अहम हिस्सा इस देश का। इसका कोई आंकड़ा ही नही है। खैर ५ किलो अनाज को हम ऐसे ही देख रहे है। बाबा की भाबुत की तरह जो बीमारी के लिए बाट रहे लेकिन उससे न बीमारी ठीक हो रही न लोगो का बाबा के प्रति और भाबूत के प्रति विश्वास कम हो रहा। खैर लिखते हुवे भी हम दो हिसो में बट गए हैं। न बाबा के खिलाप लिख पा रहे है न बाबा के तारीफ़ में क्यों की हम भी उसी हिस्से का एक पार्ट जो है। सच बताऊं तो कोई किसी का लहर नही था चुनाव में। बस २००० रूपया और ५ किलो अनाज की लहर थी जो अब तक है। 

(फ्री की ५०० रूपया मिलने पर एक तबके इतना खुश हो जाता है उसे कुछ दिखता ही नही है। गलत सही देने वाले के सिवा। उपहार को ही देख लो लोग पा कर कितना खुश हो जाते है। ये अलग बात है की बकचोदी है की इसमें प्यार होता है। इसमें पैसा की बात नही होती। फिर सस्ते उपहार पे लोग उसका तिरस्कार क्यों करने लगते है। मेरा कहने का मतलब है । की मुक्त में थोड़ी थोड़ी कीमत दे के इंसान से कुछ भी कराया जा सकता है। जैसे सरकार ५ किलो अनाज देकर गरीब से २००० रुपए देकर किसान से। कुछ उपहार देकर आशिक अपनी मसूका से। )

Wednesday, February 14, 2024

ख्वाहिशों की अंतिम तिथि

एक लंबे टाइम के संघर्ष से गुजर जाने के बाद अपनी इच्छाओं को मार के जीने के बाद। एक अवस्था ऐसी आ जाती। की खुशी मिल जाने का भी कोई अर्थ नही रह जाता हैं। फिर खुश होना एक ढोंग लगने लगता है। वो लड़के कभी खुश ही न हो सकें खुशी मिलने के बाद भी जिनकी जीवन शुरुआती दौर ही संघर्षों से भरा था। ये अपने इच्छाओं खून कर दिए उस दौर में ही। जो अब ताउम्र जीवित नहीं हो सकती। इनकी जीवन निस्पृह हैं। ये लड़के वंचित रह गए बहुत सारी चीजों से जो खुश होने का जरिया था। एक उम्र में । उस उम्र में उन चीजों का बस दर्शक बने रहे तसल्ली से, बस इनका जुर्म ये था कि, ऐसे स्मान्य परिवार से ताल्लुक था इनका कि। जब चलना सीख रहे थे ये लड़के बचपन में तो इनको छोड़ दिया गया जा चल ले बिन किसी सहारे के फिर ये खडे हो के चलने के सहारे के लिए लकड़ी खुद रेंग कर उठाई थी " ये लड़के अच्छे महंगे   विलासिता जीवन के जीने के बारे मात्र में सोच भर ले तो लगता है की पाप तो नही कर रहे। इच्छाओं को मर जाना ही जीवन में मोहभांग हैं" इन लड़को को इच्छाओं से क्या ताल्लुक रहा होगा अब तक। ये बता पाना मुश्किल है। 

पूर्वांचल एक्स्प्रेस नोबेल

एसी कोच  से जनरल कोच  तक, जनरल  कोच से एसी  कोच  तक का सफर बताता है।  इस देश में कितनी विविधता है।  जनरल कोच में बैठ के अतीत को देख रहा था ६...