कई दफ़ा कलम उठाता हूँ
तुमसे कुछ कहने के लिए
हाथ सर्द पड़ जाते हैं और
स्याही सूख जाती है
जूझती है निभ कुछ देर
कलेजा फट जाता है पन्नों का
अफ़सोस कि बस कोरी चीखें ही
पैदा होती हैं इसे
मंसूबा करता हूँ फिर फ़ोन करने का
मगर अब मेरी आवाज़ से भी तो परहेज़ है तुम्हें
ख़ामोश बड़बड़ाता हूँ ज़हन में फिर
झुंझलाहट से चेहरा तमतमाता है मेरा
तभी अचानक से आ जाती हो तुम
कहती हो कहो क्या कहना है ख़्वाब
खामोशियाँ सुनने का हुनर तुम्हीं से सीखा है मैंने
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