रात के बारह कब बजे कुछ पता ही नही चला।
मैं अपने ख़यालों को कागज़ पर उतारता रहा।
फिर आँखें कुछ बोझिल सी होने लगी और दिमाग भी थोड़ा थका सा महसूस हुआ।
मैंने अपना चश्मा उतारा और मेज़ पर रख दिया।
फिर कलम पर ढक्कन चढ़ाया और उसे उस अधलिखे सफ़े के ऊपर रख दिया और उन सफ़ों को पेपरवेट से दबा दिया।
फिर कुर्सी से उठा और पास रखे स्टूल से पानी का गिलास उठा कर एक दो घूँट हलक के नीचे उतारे।
पास ही पड़े पलंग पर लेटा और चादर ओढ़ ली।
पलंग के पास के झरोंखे से कभी कभी हवा के झोंके आते और उन अधलिखे सफ़ों को हवा देते।
फिर ख़याल आया उस ख़याल का जो उस अधलिखे सफ़े पे अधूरा था।
सोचा उठूं और उस अधलिखे सफ़े को पूरा कर दूँ।
पर फिर कभी उठ न सका, ज़िन्दगी शायद इतनी ही सी थी।
ना जाने इस दुनिया में कितनी ही कहानियाँ, कितने ही ख्वाब अधूरे रह जाते हैं।
ना जाने कितने ही सफ़े इसी तरह अधूरे रह जाते हैं।
और जब भी कोई हवा का झोंका आता है तो कितने ही अधूरे ख़्वाब आज भी मुकम्मल होने के लिए फड़फड़ाते हैं।
बिनोद कुमार
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