वो अलग बात है
बहुत दिन हो गए उसे किसानी छोड़े
फिर भी याद आती है लहलहाते खेतों में
गेहूँ की लटकती बालियाँ चने के खेत में
गड़ा रावण का बिजूखा
ऊख तोड़कर भागते शरारती बच्चों का हुजुम
मटर के पौधों में
तितलियों की तरह, चिपके फूल याद आती है
अब भी शाम को खलिहान में इकट्ठे गाँव के
युवा, प्रौढ़ व बुजुर्ग लोगों से सजी चौपाल
ठहाकों के साथ तम्बू सा तने आसमान में
आल्हा की गूंजती हुई तानें हवा के गिरेबान में
चैता-कजरी की धुनें खेतों की कटाई में टिड्डियों
सी उमड़ी हुई छोटे बच्चों की जमात
जो लपक लेते थे गिरती हुई गेहूँ की बालियाँ
ट्रक से जाते हुए ईख
चुभकर भी इनकी खूटिया नहीं देती थी
आभास चुभने का लेकिन ये बच्चे
अब जवान हो गए हैं
दिल्ली व मुंबई के आसमान तले
नहीं बीनने जाते गेहूँ की बालियाँ
अब यहीं के होकर रह गए हैं
या बस गए हैं इन महानगरों के किनारे
कूड़े कबाडों के बागवान में
इनकी बीवियाँ सेंक देतीं हैं रोटियाँ
जलती हुई आग पर
और पीसकर चटनी ही परोस देती हैं
अशुद्ध जल में घोलकर पसीना
सन्नाटे में ठंडी बयार के चलते ही
सहम जाते हैं लोग
महानगरों से चीलर की तरह
चिपके हुए हैं नाले के पास इक कमरे में
गांव ने इन्हें दिया क्या हैं खुशी के सिवा।
पर कोई मलाला नहीं इन गांव के लड़कों को।
क्यों की जब बचपना गांवों में
बीता हों और जवानी शहरों में बीते तो
कोई कसर कहा रह जाती हैं जो हम गांव के लड़के मलाल करें।
No comments:
Post a Comment