माँ के दुःख पुश्तैनी थे जो उम्र के साथ
गठिया की तरह उसकी हड्डियों में उतर गए
माँ के बारे में ये कल्पना कर पाना
कि कभी उसके दुःख निजी थे कितना मुश्किल है!
मैंने उसकी हड्डियों को किटकिटाते सुना है
कभी जाड़े से कभी थकान से
सुबह शाम पानी से निथरी हड्डियाँ
घड़ी के काँटों की तरह घर की हर हरकत में
कभी भोर में उठकर खाना बनाते हुए
कभी कपड़े धोते हुए
कभी school भेजते हुए कभी नहलाते हुए
टिकटिक बन घुलती रहीं डॉक्टर कहता है
बुढ़ापे ने जल्दी पकड़ लिया माँ को
शायद माँ ने ही उकताकर पकड़ लिया बुढ़ापा को
माँ के बारे में ये कल्पना कर पाना
कि कभी उसकी हड्डियाँ बजती नहीं थीं
कितना मुश्किल है यह सोच पाना कि
ये ये थक चुकी औरत कभी कितनी सुन्दर थी
सायद मां ने अपनी हड्डियां गला के हमारी हड्डियों को
जान दि है ।
No comments:
Post a Comment