Tuesday, November 28, 2023

रूढ़िवादी विचारधारा और महिला सशक्तिकरण

चूल्हे चौका, बिंदी, टीका, और घूंघट से निकलकर
महिलाओं को। देश, नौकरी, राजनीति, समाज, पे बाते करने तक का सफर सदियों से आज तक एक मील नहीं चल पाया। आज भी देश का आत्मा कहे जाने वाले देहात इन Conservative ideology के कटीले बेरिया में इस कदर जकड़ा हूवा है। की इससे निकलने में सदियों लग जायेंगे। विकासशील से विकसित देश की तरफ ले जाने कि कल्पना इन  रूढ़िवादी विचारधारा के साथ बस एक स्वपन सा लगता हैं। इन रूडी वादी विचारो ने लोवर तबके के महिलाओं को आज भी चूल्हे चौका, बिंदी, टीका, और घूंघट तक समेट कर रखा है।  पीढ़ियों के साथ विचारो को अंत हो जाना चाहिए और ये आखिरी पीढी है जो इन विचारो के साथ सिमट जाना चाहिए। लेकिन आज भी लड़कियों के साथ ये विचार नई पीढ़ियों तक आगे जा रहे है । आज भी ब्याही जा रही लड़कियों १०th और १२th करने के बाद इसी मानसिकता से की उन रूढ़िवादी विचारो को ही तो चलाना है। शहरो के महिलाओं के देख कर हम नए युग की जो कल्पना कर लिए है। ओ निर्धार ही हैं। क्यों की देहात और लोवर तबके की महिलाएं भी इसी देश की महिला जनसंख्या को दर्शाती है। और वो आत्म निर्भर क्या उनको अपना राईट भी पता नही हैं। क्यो कि उनको उनका राईट एजुकेशन से वंचित रखा गया.l  Women Education help for women empowerment and Lack of Women empowerment leads to women domestic violence, 

   𝒜𝓊𝓉𝒽ℴ𝓇 
𝓋𝒾𝓃ℴ𝒹 𝓀𝓊𝓈𝒽𝓌𝒶𝒽𝒶                    

Friday, October 13, 2023

अस्तित्व

रेगिस्तान में पानी की कमी है
लिहाजा वहां पेड़ो की पत्तियों ने कठोर 
काटें बनकर बचाया अपना अस्तित्व;
जिनके जीवन में प्रेम की कमी है
वे स्वयं को बचाने के लिए पत्थर में
तब्दील जाते हैं। कठोर होने का मतलब निष्क्रीय
होना नहीं हैं। कठोर होना टुटने से बचना भी है।


Friday, September 29, 2023

अतीत जज़्बात आज और हम

मैं हर रोज देखता हूँ. सडक पर आते जाते 
शाम को किताबों को हाथ में
लिए लाइब्रेरी या कोचिंग से
वापस लौटते हुए लड़के लड़कियाँ को 
चेहरे पर उदासी
मन में हजारों सपने
जेब में कुछ फुटकर पैसे
घर की चिन्ता
भविष्य की अस्थिरता
और साथ हार जाने का डर  खो सा जाता हु।
दरअसल
जीत का जश्न और हारने के डर
के बीच की दूरी तय करते हुए लोगों को देखता हूं 
तो मैं अपने अतीत में खो जाता हु
अभी भी कसमकश दिमाग में चलने लगता हैं
कि। हम इस दौर से दूर आ गये हैं या इसी दौर में है।
उम्मीदें आज भी ताकती है । सपनो को सच होने के इन्तजार में। और हमें लगता है हम दुर निकल आये हैं
उस दौर से जिस दौड़ में हम उस छोर तक जाना चाहते थे। जहां जाना नामुमकिन सा है। हम दौड तो उस दौर से सुरु की थी। जब दौरन के लिए चपल ने थे। फिर भी शमिल हुए हम दौर में। क्यों कि दुर तक दौरना था मुझे। अनन्त तक । अब लगता है बहुत पीछे रह गए हम.।

Vinod kushwaha

Tuesday, May 9, 2023

बदल रहीं हैं जिन्दगी

इस तूफ़ान से गुज़रते हुए, बदल रही हैं
चीजें । सीख जाओगे एक रोज़ तूफ़ानों में भी शांत रहना। कई लकीरें
उभर आयेंगी चेहरे पर, और उन लकीरों में कहीं छुपी होगी स्वीकृति जीवन की ।
हर छोटी बात पर जो हलचल और बेचैनी महसूस करते हो अभी, 
एक रोज़ सीख जाओगे मुस्कुराते हुए चीज़ों को आते जाते देखना । 
जितना सब कुछ ज़रूरी लगता है जीने के लिये, उतने सब की ज़रूरत नहीं होगी । 
जब सीख जाओगे सवालों के हल अपने भीतर ढूँढना
जब जिम्मेदारी आ जायेगी न तब तक परिपक्व हो जाओगे। ये जो बातों बातों पे जो तिलमिलाहट होती हैं न शान्त हो जाओगे बुरी बातें सुन कर भी इक दिन! 
इस तूफ़ान से गुज़रते हुए, बदल रही हैं चीजें घड़ी कि सुईयों के साथ टिक टिक। ये जो झरनें कि तरह आवाज कर रहे न। समन्दर बन जाओगे तुम।

Wednesday, April 26, 2023

प्रतिक्षाएँ

प्रेम और प्रतिक्षाएँ एक साथ
जन्म लेती हैं
जो प्रतिक्षाओं में जीते हैं
जो किसी के आने या जाने
या मिलने कि प्रतिक्षाओं से पीड़ित हैं
वो विश्व के सबसे शांत लोग है
उन्हें युद्धों से कोई मतलब नहीं है
उन्हें मतलब होता है
जो युद्धों से लौटकर नहीं आए उनसे
वो बंदूकों से इतर
किताबें पकड़ना ज्यादा पसंद करते हैं ।
किसी तोप या गोले दागने से
बेहतर लगता है
किसी व्यस्त चौराहे पर जाकर
वॉयलन बजाया जाए
गीत गाया जाए

Thursday, March 30, 2023

हम अपनी पसन्द का कभी उड़ान नहीं भर पाये।

पतंगों की तरह हमें भी उड़ने का मौका मिला मौका
मिला ऊँची उड़ाने भरने का, मगर उड़ानों की डोर
हमेशा से ही किसी और के हाथों में रही, जब भी अपनी
मर्जी से ऊपर उड़ना चाहा खींच दी गई डोर और हम
कभी भी अपनी पसंद की उड़ान नहीं पा सके।
पर....
वे भूल गए कि जरा सी ढील जरूरी है ऊँची उड़ानों के
लिए और अपने पतंग को बचाए रखने के लिए। अगर
डोर को ज़रूरत से ज्यादा खिंची जाये तो वो कट जाती
है और जा गिरती है किसी और की छत पर जिसे कोई
और पा लेता है। पाकर खुश होता है, किसी और के
छत से वो पतंग दोबारा उड़ाए जाने लगती है, लेकिन
इस बार उड़ाने वाला ना कोई संकोच रखता है और ना
कोई ऐहतियात बरतता है क्यूंकि वो जनता है यह पतंग
उसकी खुद की खरीदी हुई नहीं बल्कि कट कर उसके
छत पर गिर जाने वाली पतंग है बिल्कुल बेसहारा और
कुछ देर बाद मन उबने के बाद उसी के हाथों पतंग फाड़
दी जाती है जिसे पाने वाला कुछ देर पहले बहुत खुश
था।
वक्त वक्त पर पतंगों को डील देनी पड़ती है ताकि वो
अपना आसमान, अपनी उड़ान और अपना मुक़ाम
हासिल कर सकें।

पूर्वांचल एक्सप्रेस

            V inod Kushwaha   हर नई पीढ़ी आती है बड़ी होती है और कोई एक्सप्रेस पकड़ती है दूर दराज शहर को चली जाती है। सदियों से ये हमारी...